ये मन बंजारा रे - गीता गैरोला
"ये मन बंजारा रे" गीता गैरोला द्वारा लिखित एक दिल को छू लेने वाला उपन्यास है, जो पहाड़ी समाज के संघर्ष, जीवन और पहचान की भावनाओं को बहुत ही संवेदनशील तरीके से व्यक्त करता है।
लेखिका लिखती हैं यात्राएं हमेशा मानसिक संपन्नता का सोपान होती हैं। यात्राओं में सैंकड़ों लोग मिलते हैं, उनकी कहानी सुनाई देती हैं, लोगों की जिंदगियों की सच्ची तस्वीर मालूम होती है। सुख-दुख की परतें बिखरती हैं, हम अपनी आंखों से देखें, कानों से सुनें दुख सुखों को अपनी झोली में भर कर आगे चल पड़ते हैं। पहाड़ों की उन संकरी उबड़-खाबड़ पगडंडियों पर जो कभी बहुत पास लगती हैं, कभी किसी मोड़ के बाद ओझल हो जाती हैं, कभी दूर चलती दिखाई देती हैं। यात्राओं ने मुझे हमेशा आगे बढ़ाया, रास्ता दिखाया और रास्ता बनाया भी। मुझे यात्राएं हमेशा किताबों की तरह लगती रही हैं।
यह किताब पहाड़ों के आत्मीय रिश्तों, पर्यावरण, और वहां के लोगों के जीवन की सच्चाइयों पर आधारित है। "यह मन बंजारा रे" का मुख्य विषय पहाड़ का जीवन और उसमें समाहित प्रेम, दर्द और संघर्ष है। यह एक तरह से आत्मीय खोज का सफर है, जिसमें पात्र अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने की कोशिश करता है। यात्रा वृतांत के भीतर प्रेम, त्याग और अपने कर्तव्यों को निभाने का गहरा संदेश है।
गीता गैरोला ने अपनी लेखनी में पहाड़ी जीवन के संघर्षों को बहुत ईमानदारी से दिखाया है। यह किताब न केवल अपने भीतर की गहरी भावनाओं को उजागर करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि कैसे पहाड़ी समाज के लोग अपने पारंपरिक जीवन को आधुनिकता के दबाव में खोते जा रहे हैं। किताब में प्रकृति और मनुष्य के बीच गहरे चित्रण है, जो दर्शाता है कि कैसे इस रिश्ते में बदलाव आ रहा है।
दगड्या अभिषेक पवार लिखता है कि - यात्रा वृतांत का पहला शीर्षक "ओंस में भीगती रात" है। जबकि यह कृति 36 वर्ष पुरानी यात्रा का संग्रह है फिर भी पाठक को जकड़े रखकर आज के प्रवेश में भी प्रासंगिक दृश्यों को चित्रित करती है। दरअसल यह वाकया लेखिका के गोपेश्वर से तुंगनाथ की पैदल यात्रा की पैदल यात्रा का है। यह सब अक्टूबर 1987 की बात है, जब लेखिका अपनी तीन सहेलियों और शीर्षक के मुख्य चरित्र रविंद्र चौहान के साथ इस यात्रा पर निकलती है। परिणाम यह होता है की लेखिका के अंदर एक घुम्मकड़ी का बीज फूटने लगता है।
दगड्या द्वारा लिखा गया यह भाव मुझे भी महसूस हुआ। यही कारण रहा कि इसे यहां जोड़ रहा हूं। गीता गैरोला की लेखनी में गहरी संवेदनशीलता और सजीवता है, जो पाठकों को पहाड़ी जीवन की सजीव तस्वीर दिखाती है। यात्रा वृतांत के पात्र अपनी जड़ों से जुड़ी एक ऐसी यात्रा पर निकलते हैं, जो न केवल व्यक्तिगत, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान की भी तलाश है।
गीता गैरोला की लेखन शैली बहुत ही सरल लेकिन प्रभावशाली है। उनकी भाषा में एक खास तरह की लय है, जो पाठकों को न केवल कहानी से जोड़े रखती है, बल्कि उसे उसे दुनिया में खो जाने का एहसास कराती है। पहाड़ों के दृश्य, उनकी आवाजें और वहां के लोग जैसे जीवित हो उठते हैं, और पाठक को अपने भीतर गहरे स्तर पर एक जुड़ाव महसूस होता है।
यह किताब जीवन के कई पहलुओं को छूने का प्रयास करती है। यहां पर पहाड़ी जीवन के बदले स्वरूप, ग्रामीण जीवन की कठिनाइयां, और आर्थिक संकटों का भी गहराई से विश्लेषण किया गया है। यात्रा वृतांत में न केवल समाज के बदलाव को दिखाया गया है, बल्कि व्यक्तिगत परिवर्तन और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते कदम भी आदर्श गए हैं।
"ये मन बंजारा रे" एक ऐसी किताब है जो पहाड़ी जीवन की सच्चाइयों को न केवल उजागर करती है, बल्कि पाठक को यह समझने का मौका देती है कि एक समाज के भीतर के रिश्ते, संघर्ष, और परिवर्तन किस प्रकार उसकी पहचान और अस्तित्व को प्रभावित करते हैं। यह किताब उन लोगों के लिए विशेष रूप से जरूरी है जो जीवन की गहरी और वास्तविक सच्चाइयों को जानने की इच्छा रखते हैं।
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