चिपको आंदोलन


आंदोलन:

1964 में पर्यावरणविद् और गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता चंडी प्रसाद भट्ट ने स्थानीय संसाधनों का उपयोग करके ग्रामीण ग्रामीणों के लिए छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए एक सहकारी संगठन, दशोली ग्राम स्वराज्य संघ (बाद में इसका नाम बदलकर दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल [डीजीएसएम]) की स्थापना की। जब औद्योगिक कटाई को 1970 में क्षेत्र में 200 से अधिक लोगों की जान लेने वाली भीषण मानसूनी बाढ़ से जोड़ा गया, तो डीजीएसएम बड़े पैमाने के उद्योग के खिलाफ विरोध की ताकत बन गया। चिपको आंदोलन की पहली लड़ाई 1973 की शुरुआत में उत्तराखंड के चमोली जिले में हुई। यहां भट्ट और दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल (डीजीएसएम) के नेतृत्व में ग्रामीणों ने इलाहाबाद स्थित स्पोर्ट्स गुड्स कंपनी साइमंड्स को 14 ऐश के पेड़ काटने से रोका। यह कार्य 24 अप्रैल को हुआ और दिसंबर में ग्रामीणों ने गोपेश्वर से लगभग 60 किलोमीटर दूर फाटा-रामपुर के जंगलों में साइमंड्स के एजेंटों को फिर से पेड़ों को काटने से रोक दिया। । ग्रामीणों को कृषि उपकरण बनाने के लिए कम संख्या में पेड़ों तक पहुंच से वंचित कर दिया गया था, जब सरकार ने बहुत बड़ा भूखंड आवंटित किया तो वे नाराज हो गए। एक खेल सामान निर्माता ने जब उनकी अपीलें अस्वीकार कर दी, तो चंडी प्रसाद भट्ट ग्रामीणों को जंगल में ले गए और कटाई को रोकने के लिए पेड़ों को पकड़ लिया। कई दिनों के विरोध प्रदर्शन के बाद, सरकार ने कंपनी का लॉगिंग परमिट रद्द कर दिया और डीजीएसएम द्वारा अनुरोधित मूल आवंटन प्रदान कर दिया। मंडल में सफलता के साथ, डीजीएसएम कार्यकर्ताओं और स्थानीय पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा ने चिपको की रणनीति को पूरे क्षेत्र के अन्य गांवों के लोगों के साथ साझा करना शुरू कर दिया।


1974 में वन विभाग ने जोशीमठ ब्लॉक के रैंणी गांव के पास पेंग मुरेंडा जंगल में पेड़ों(2451) को काटने के लिए चुना, यह इलाका 1970 की भीषण अलकनंदा बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुआ था। ऋषिकेश के एक ठेकेदार जगमोहन भल्ला को 4.7 लाख रुपये में 680 हेक्टेयर से अधिक जंगल की नीलामी की गई। जब ठेकेदार कुल्हाड़ों को साथ लेकर गांव पहुंचा तो गांव के सभी लोग जिनमें औरतें और बच्चे शामिल थे, इस अमानवीय हरकत को रोकने के लिए पेड़ों से चिपक गये। 23 मार्च को रैंणी गांव में पेड़ों का कटान किये जाने के विरोध में गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन हुआ। इस रैली में रैणी गांव का नेतृत्व गौरा देवी ने किया।


इसके बाद पेड़ काटने वाले सभी स्थानीय कुल्हाड़ों ने रैंणी गांव जाने से इनकार कर दिया। रैंणी गांव में कटान को लेकर ठेकेदार और अधिकारियों ने एक साजिश रची। रैंणी गांव और इसके आस-पास के सभी गांवों के लोगों को प्रशासन ने सूचना दी कि नीलामी स्थगित कर गयी है क्योंकि सरकार 1962 के चीन युद्ध के दौरान सेना द्वारा अधिकृत जमीन और उसके बाद बनी सड़कों का हर्जाना दे रही है इसलिये परिवार के मुखिया गोपेश्वर आकर अपना हर्जाना ले जायें। क्योंकि गांव में परिवार का मुखिया पुरुष होता है इस लिहाज से एक निश्चित तारीख को गांव के सभी पुरुष गांव से बाहर हो गये। इसी बीच वन विभाग ने सुनियोजित चाल के तहत जंगल काटने वाले ठेकेदारों को निर्देशित कर दिया कि 26 मार्च को वे अपने मजदूरों को लाकर चुपचाप रैणी जंगल के पेड़ों को काट ले। ठेकेदार बाहरी कुल्हाड़ों वाले लोगों के साथ चुपचाप रैंणी जंगल की ओर निकल पड़े। रैंणी से पहले ही नीचे उतर कर ऋषिगंगा के किनारे रागा होते हुए गाँव की तरफ जाते ठेकेदार के आदमियों द्वारा गुप्त रूप से की जा रही इस हलचल को एक छोटी लड़की ने देख लिया। इस बात को उसने तुरंत गाँव जाकर गौरा देवी को बता दिया। उस समय गांव में केवल 21 महिलायें और कुछ बच्चे थे। गौरा देवी इन सभी को लेकर जंगल की ओर चल पडीं. इनमें तिलाड़ी देवी, इन्द्रा देवी, नृत्यी देवी, लीलामती, उमा देवी, हरकी देवी, बाली देवी, बती देवी, महादेवी, भूसी देवी, पासा देवी, रुक्का देवी और रुपसा देवी शामिल थीं। गौरा देवी इन का नेतृत्व कर रही थी। 


ठेकेदार के कुछ आदमी इस समय जंगल में बैठकर खाना खा रहे थे जबकि कुछ आदमी अपने औजारों की धार तेज कर रहे थे। खाना बना रहे मजदूरों से गौरा देवी ने कहा “भाइयो, यह जंगल हमारा मायका है। इससे हमें जड़ी-बूटी, फल- सब्जी और लकड़ियां मिलती हैं। जंगल काटोगे तो बाढ़ आयेगी, हमारे बगड़ बह जायेंगे। आप लोग खाना खा लो और फिर हमारे साथ चलो। जब हमारे मर्द आ जायें तब फैसला कर लेंगे। इस पर ठेकेदार और जंगलात के आदमियों ने उन्हें डराना-धमकाना शुरू कर दिया और काम में बाधा डालने के जुर्म में उन्हें गिरफ्तार करने तक की भी धमकी भी दे डाली। जब डराने- धमकाने से बात न बनी तो ठेकेदार ने बंदूक निकाल ली। गौरा देवी ने अपनी छाती तानकर गरजते हुये कहा "पहले मुझे गोली मारो फिर काट लो हमारा मायका! इस पर मजदूर और सहम गये। इसके बाद गौरा देवी और अन्य महिलायें पेड़ों से चिपक गई और कहा कि हमारे साथ इन पेड़ों को भी काट लो। घंटों इंतजार के बाद ठेकेदार और उसके आदमियों ने हार मान ली और जंगल से चले गये। उनके रात के अँधेरे में दुबारा न आ जाने के डर से गौरा देवी और अन्य महिलाओं ने रात भर जंगलों की चौकीदारी की। जब यह खबर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर फैली तो रैंणी गांव की गौरा देवी को चिपको वूमेन ऑफ़ इण्डिया कहा गया।



चिपको आंदोलन की जड़ें:

द अनक्विट वुड्स के लेखक, सामाजिक इतिहासकार रामचंद्र गुहा के अनुसार, उस समय उत्तर प्रदेश, जो कि अब अलग होकर उत्तराखंड राज्य बन गया है। हिमालय में व्यावसायिक वानिकी के खिलाफ सदी के मोड़ पर वापस जाने वाले किसान विरोधों की एक लंबी श्रृंखला में चिपको नया था। 1916 में ब्रिटिश अधिकारियों ने कुमाऊं के लोगों द्वारा व्यावसायिक उपयोग को लेकर जंगलों को खोलने के लिए "जानबूझकर और संगठित तरीके से आग लगाने पर मजबूर किया, लेकिन इसने लोगों को उनके पारंपरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया।

1916 का आंदोलन, जो उतर (जबरन श्रम) के खिलाफ एक आम हड़ताल के रूप में शुरू हुआ और फिर एक व्यवस्थित अभियान बन गया, जिसमें कुमाऊं में विशेष रूप से अल्मोड़ा में चीड़ के जंगलों को जला दिया गया, जिसके कारण 1921 में कुमाऊं के जंगल शिकायत समिति का निर्माण हुआ।



(जानकारी - kafaltree पेज, ऑनलाइन)।

(छायाचित्रों को ऑनलाइन निकाला गया है)।

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