रूपकुंड के रहस्य

रूपकुंड भारत उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले में स्थित एक हिम झील है जो अपने किनारे पर पाए गये पांच सौ से अधिक मानव कंकालों के कारण प्रसिद्ध है। यह स्थान निर्जन है और हिमालय पर लगभग 5029 मीटर (16499 फीट) की ऊंचाई पर स्थित है।


वैतरणी 'बुग्याल' हिमक्रीड़ा स्थल

उस समय गढ़वाल में एक अंग्रेज अधिकारी आर.वी. वर्नीड जिलाधीश थे। हिमालय की द्रोणियाँ उन्हें इतनी अधिक प्रिय थीं कि उन्होंने वैतरणी के विशाल ढलान पर बर्फ पर खेले जाने का प्रबन्ध किया था। उनके अनेक सहयोगी और मित्र रूपकुंड के निचले गिरितलों (ढालों) पर जो मीलों तक फैले हैं और कुमाऊँनी भाषा के बुग्याल कहलाते हैं अपनी लम्बी लम्बी काठ कुटी का भी निर्माण उन हिमकीड़ा प्रिय लोगों ने इन बुग्यालों के मध्य कर लिया था। आठ-नौ हजार फिट से अधिक ऊंचाई पर तो बड़े पेड़-पौधे होते ही नहीं, इसलिए इस कुटी का निर्माण करने के लिए काष्ठोपकरणों को निचले पहाड़ों से लगभग 12000 फिट की ऊंचाई तक ढोया गया था।



शवों के सम्बन्ध में पहले अनुमान:

 युद्धकाल में जब कि सारे अंग्रेज अधिकारियों का ध्यान गढ़वाल से अधिक से अधिक रंगरूट प्राप्त कर लेने का था. शवों की प्राप्ति के इस अशुभ समाचार को अधिक महत्व देना उचित नहीं समझा गया। यद्यपि समाचार पत्रों में यह समाचार अवश्य छपा कि नंदाकिनी के मार्ग में किसी प्राचीन राजा की सेना मृत पड़ी है। अत्यधिक शीत के कारण वे लाशें अब भी अक्षुण्ण पड़ी हैं और सैनिकों के वस्त्र, जूते आदि पास ही बिखरे पड़े हैं। भारत की इस उत्तरी सीमा पर चीन के मार्ग से कहीं जापानी शत्रु तो नहीं आ पहुंचे यह बात अंग्रेज अधिकारियों की कल्पना में उदित हुई होगी। क्योंकि अगले वर्ष इस स्थल को चुपचाप देखने के लिए कुछ सैनिक अधिकारी भेजे गये। यह विश्वास हो जाने पर कि मृत व्यक्ति असैनिक हैं और तिब्बती प्रकार के घुटने तक के ऊनी कपड़े के जूते पहने हैं। इस प्राचीन दुर्घटना पर अधिक प्रकाश नहीं डाला गया। लगभग 12 वर्ष के उपरान्त इस वर्ष उत्तर प्रदेश के वन-विभाग के उपमंत्री श्री जगमोहन सिंह नेगी, जो गढ़वाल जिले के निवासी है, इस दुर्गम स्थान तक गये और इन शवों को देख कर उन्होंने दुर्घटना के कारण, उसके समय तथा मृत मनुष्यों के विषय में वक्तव्य दिये। समाचार एजेन्सियों के प्रतिनिधियों ने भी रूपकुंड तक जाकर कुछ अस्थियों तथा अन्य अवशेषों का संचय करके वैज्ञानिकों द्वारा उनका विश्लेषण कराया जिससे यह बात प्रकट हुई कि लाशें भिन्न-भिन्न जाति के लोगों की हैं तथा यह कि शायद वे कुमाऊँनी लोगों की न हों।


सन् 1841 में प्रकाशित समाचार:

पी० बैरन, अंग्रेज होते हुए भी अपने को तीर्थयात्री 'पिलग्रिम' कहता था। वह सन् 1840 से 1842 तक हिमालय की द्रोणियों में घूमा। अपनी यात्रा का वर्णन उसने आगरा से निकलने वाले तत्कालीन अंग्रेजी पत्र 'आगरा अखबार' में प्रकाशित कराया। यह वर्णन सन् 1844 में आगरा से 'पिलग्रिम्स वांडरिंग्स इन द हिमाला' नामक अंग्रेजी पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ। इसी यात्री ने तब निर्जन नैनीताल झील के किनारे पहला मकान बनाया जो अब भी 'पिलग्रिम हाउस' के नाम से प्रसिद्ध है और नैनीताल क्लब के पीछे स्थित है। नैनीताल नगर को बसाने का श्रेय बैरन नामक अंग्रेज को है।



सिक्ख तिब्बत युद्ध:

बैरन की लिखी उपर्युक्त पुस्तक में सन् 1841-42 की उस लड़ाई का भी वर्णन है जो हिमालय के तिब्बतीय ढाल पर सिक्खों तथा तिब्बतियों के बीच हुई थी। सिक्ख सरदार जोरावरसिंह ने गरतोक के मठ पर आक्रमण करके तिब्बतियों पर घोर अत्याचार किये थे। तिब्बती लोगों के अनेक दल सन् 1841 की ग्रीष्म तथा वर्षा ऋतु में अपना घर छोड़ कर भारत की ओर भाग आये। मार्ग में ऊँचे-ऊँचे हिमखण्डों को पार करने में इन तिब्बती दलों में से अनेक व्यक्ति मर गये। जिस दिन (18 अक्टूबर, 1841 ) पिलग्रिम' बदरीनाथ से दो मील उत्तर माणा नामक स्थान पर था, उसे इन शरणार्थी तिब्बतियों का बड़ा भारी दल मिला। वह लिखता है कि वे लोग कोई भी भारतीय भाषा नहीं जानते थे। थोलिंगमठ का ( यह मठ बदरीनाथ से लगभग 8 दिन के मार्ग पर तिब्बत में स्थित है) लामा भी अपने भिक्षु दल सहित भाग कर अल्मोड़ा अंग्रेजों की शरण में आया तथा अगले वर्ष तिब्बत में शान्ति हो जाने पर अंग्रेज अधिकारी कैप्टन बैलर उसे भारतीय सीमा के उस पार तिब्बत तक पहुँचा आया था।

सिक्खों में भगदड़:

यद्यपि सिक्ख सरदार जोरावर सिंह तिब्बत में कश्मीर की सीमा से तिब्बती पठार पर सैकड़ों मील तक निर्विरोध बढ़ गया था लेकिन जाड़े की ऋतु के आते ही उसकी सेना बेकार हो गई। तिब्बती सैनिकों ने सिक्खों को ऐसी पराजय दी कि शीत प्रदेश से अनभ्यस्त पंजाबी सैनिकों को मैदान छोड़ कर भागना पड़ा। सारी सेना तितर बितर हो गई। जोरावर सिंह तोयो नामक स्थान पर मारा गया और उसकी लाश के टुकड़े-टुकड़े करके उन टुकड़ों को तिब्बतियों ने अपने मठों में स्मारक रूप में रख लिया। कैलाश मानसरोवर के मार्ग में कुछ मठों में ये मांसपिंड हैं। अनेकों सिक्ख सैनिकों में से 15 भाग कर लीपूलेख (अल्मोड़ा) घाटी से तिब्बत कुमाऊँ की सीमा को पार करके अल्मोड़ा पहुंचे और कैद कर लिए गये। इन पन्द्रहों के आने का वर्णन भी बैरन ने उपर्युक्त लेखों में किया है और कहा है कि इन सैनिकों को मार्ग में जाड़े के निवारण के लिए अपनी बन्दूकों के कुन्दे तक जलाने पड़े थे।



शव किनके हैं?

रूपकुंड के अवशेषों के विषय में अनेक अनुमान लगाये गये हैं। श्री नेगी का कहना है कि मृत लोग सिक्ख सैनिक थे जो तिब्बत से भाग कर कुमाऊं की ओर आ रहे थे। किन्तु रूपकुंड भारतीय तिब्बत सीमा से लगभग 20 दिन की यात्रा के उपरान्त आता है। भागने के लिए इससे अधिक शीघ्र और कम कठिन मार्ग सतलज के किनारे-किनारे पंजाब कश्मीर सीमा का था जहां से वे तिब्बत में घुसे थे तथा जहां के मार्ग से वे परिचित थे। तथा इन सैनिकों को गढ़वाली अंग्रेजी राज्य के अन्दर अनधिकार प्रवेश करने का साहस भी नहीं हो सकता था। फिर इन सैनिकों के साथ स्त्रियों अथवा बच्चों का होना भी असंगत है। जिनके अवशेष रूपकुंड में मिले हैं। इन अवशेषों में उल्लेखनीय वस्तु बड़े बड़े दानों की 'हमेल' है जिसे कि लामा स्त्रियां बहुधा पहनती हैं। यहां जो अवशेष मिले हैं उनमें तिब्बती लामाओं के पहनने के ऊनी कपड़ों के बने घुटने तक आने वाले बूट हैं। याक जाति के पशु के अवशेष भी मिले हैं, जिनकी पीठ पर तिब्बती अपना सामान लाद कर यात्रा करते हैं। सिक्ख धर्मावलम्बियों के कोई भी अवशेष नहीं हैं। न कृपाण ही मिले हैं, न लोहे के कंकड़ और न कंघे । इससे स्पष्ट है कि ये अवशेष जोरावर सिंह के सैनिकों के नहीं हैं। वास्तव में उन सैनिकों का इस मार्ग से गुजरना ही असम्भव है। क्योंकि गढ़वाल में बदरी - केदार यात्रा के कारण विदेशी सैनिकों को पहचान कर तुरन्त पकड़ लिया जा सकता था और घमासान लड़ाई गढ़वाल तिब्बत सीमा पर नहीं, 200 मील पूर्व तिब्बत - अल्मोड़ा - नेपाल सीमा पर हुई थी। इस ओर उन सैनिकों द्वारा खदेड़े हुए तिब्बती लोग उत्तरी गढ़वाल के सभी भागों से आकर निष्कंटक न थे। इसके अतिरिक्त रूपकुंड और युद्धस्थल के मध्य में लगभग डेढ़ सौ घाटियां और इससे अधिक दुर्गम चोटियां हैं। इससे स्पष्ट है कि ये अवशेष सिक्खों के नहीं हैं।


शवों के सम्बन्ध में :

यह अनुमान है कि ये अवशेष उन शरणार्थी तिब्बतियों के हैं जो सन् 1841 के ग्रीष्मकाल में पश्चिमी तिब्बत पर सिक्खों के अत्याचार के कारण अचानक सपरिवार अपने घरों को छोड़ने पर विवश हुए थे तथा जिनके अनेक दलों का वर्णन बैरन ने अपने यात्रा वृत्तान्त में किया है, अधिक युक्तिसंगत जान पड़ता है। इसी यात्रा वृतान्त में एक स्थल पर यह भी लिखा है कि सितम्बर के अन्तिम सप्ताह (1841) में उत्तर गढ़वाल के हिम प्रदेश में एक अप्रत्याशित भयंकर बर्फ का तूफान आया था तथा 29 और 30 सितम्बर को तो इस तूफान के कारण अनेक ‘ऐवलांच' (पर्वतों के ढाल पर जमी हुई कई गज मोटी बर्फ का स्तर जो बोझ या गर्मी के कारण फिसल कर नीचे घाटी या मैदान में गिरने लगता है) गिरे थे। हिम की बड़ी-बड़ी शिलाओं ने पर्वत पार्श्वो से नीचे घाटियों की ओर खिसक कर उन्हें पाट दिया। यही वह मौसम था जब तिब्बत- भारत सीमा के मध्यवर्ती दर्रे पार किये जा सकते हैं और जब तिब्बती व्यापारी भारत और भारतीय व्यापारी तिब्बत जाते हैं। सम्भव है कि यह ऐसा ही कोई तिब्बती व्यापारी दल का सार्थवाह था, किन्तु अधिक सम्भव तो यह है कि यह नंदाकिनी के तीर्थ यात्रियों का दल था जो त्रिशूल के पार्श्व में कुमाऊँ की इष्ट देवी नंदा के दर्शनार्थ जा रहा था, अथवा किसी हिमालय प्रदेश के पर्यटक के भारवाही मजदूरों का यह दल था जो भटक गया था और हिम में दबकर नष्ट हो गया। स्वयं बैरन भी इस मार्ग में भटक गया था तथा रामणी के पास बर्फ के तूफान में मरते-मरते बचा था।



कत्यूरी राजाओं की इष्टदेवी नंदा:

नंदा देवी कुमाऊँ के राजाओं की कुल देवी रही है। कुमाऊँ में स्थान-स्थान पर नंदा देवी के मंदिर हैं और उसकी पूजा होती है। चन्द राजाओं का बनाया नंदादेवी मंदिर अल्मोड़ा प्रसिद्ध मंदिरों में से है। इस मंदिर में वर्ष में एक बार नंदाष्टमी के अवसर पर देवी की उपासना करने और भैंसे का बलिदान करने कुमाऊँ के राजा साहब अपने अन्तिम दिनों में भी (लगभग दस वर्ष पूर्व तक) स्वयं पधारते थे। कत्यूर की अति प्राचीन घाटी में नंदादेवी 'कोट की माई' कहलाती है। वहां पर भी एक प्राचीन छोटे से मंदिर में प्रतिवर्ष नंदाष्टमी (भादों शुक्ल अष्टमी) को भारी मेला लगता है। इसी अवसर पर प्राचीन काल में एक मेला वास्तविक नंदादेवी हिमशिखर के मूल में नंदाकना नामक स्थान पर लगता था। वह स्थान कोट की माई के मन्दिर से लगभग 50 मील दूर तथा रूपकुंड केवल 8 मील आगे था। यह तीर्थ यात्रा, बड़ी यात्रा से या राज यात्रा कहलाती थी। यह यात्रा अब 12 वर्ष उपरान्त लगती है और प्रायः समाप्त सी हो गई है।




शवों के विषय में अन्य संभावनायें:

रूपकुंड का प्राचीन नाम रुद्रकुंड क्यों था? इसी प्रकार 'वेदिनी' के उन बुग्यालों को पर्वतीय लोग 'वैतरणी' क्यों कहते हैं? सम्भवतः अति प्राचीनकाल में आत्मघात करने के लिए तीर्थयात्री इस ओर आते थे । हो न हो इसीलिए कुमाऊँ में सर्वोच्च नंदादेवी शिखर के मूल में स्थित नंदाकन तक की बड़ी यात्रा नामक यह यात्रा की जाती थी। जिस प्रकार केदारनाथ के पीछे भैरव झांप नामक प्रपात से कूद कर यात्री स्वर्ग की प्राप्ति की इच्छा से आत्मघात कर लेते थे उसी प्रकार का यह रुद्रकुंड रुद्रदेव शिव की शरण में जीते जी पहुंचने का मार्ग तो न था? क्या इसीलिए अब भी कुमाऊँनी द्विज के लिए जूते पहन कर इस पहाड़ पर चढ़ना वर्जित है? तिब्बती डाकुओं के दल, जैसे कि मानसरोवर के यात्रियों को अब भी मिलते हैं तथा 1830 तक आतंक फैलाए हुए थे, इस ओर नंदाकिनी के यात्रियों को लूटने के लिए छिपे रहते थे। वे लोग नरमांस भक्षी भी थे। यह भी सम्भव है कि ये शव उन्हीं के शिकार किन्हीं यात्रियों के हों। यह सब ऐसे विषय हैं जिन पर पर्याप्त खोज की आवश्यकता है। क्योंकि अंग्रेजी शासन के पहले इस प्रदेश में तीर्थयात्री का आत्मघात करना दंडनीय न था ।

गढ़वाल के कुछ सीमान्त गांवों में मुरदों को ऊंचे-ऊंचे हिमकुंडों तक ले जाकर विसर्जित करने की प्रथा है। माणा (12000 फिट) गाँव के लोग अपने मृतकों को सतोपंथ कुंड (18000 फिट) तक ले जाकर विसर्जित करते हैं। सम्भव है कि रुद्रकुंड ऐसा ही शमशान हो जहां प्राचीनकाल में 'कत्यूर' के लोग भी अपने मुर्दों को उनकी सद्गति के लिए वैतरणी को पार करा कर डाल जाते हों।


(कुमाऊं और गढ़वाल के दर्शनीय स्थल से साभार)





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