गोपेश्वर, बाड़ाहाट और नेपाल का त्रिशूल

            
               गोपेश्वर में उत्कीर्ण लेख

ओम, शुभम् देवादि देव राजेन्द्र जिनकी वीरता की अग्नि में शत्रुओं की तलवारें भस्म हो जाती हैं, जिसके नाखूनों के रत्न शत्रु राजाओं की पत्नियों की मांग को रंगत देते हैं, जिसके ज्ञान का विस्तार और गाम्भीर्य महासागर के समान है, जिसके पादपीठ के मणियों के साथ उसके सहयोगी और विरोधी राजाओं के शीश के मोती चमकते हैं, जो शाही हाथियों के बीच सिंह है तथा दानवों की भूमि का उसी तरह शासक है जैसे बेतालों का शासक विक्रमादित्य है। क्योंकि जिनको इस नाम से जाना जाता है वे भले ही मंगोल वंश के रहे हों लेकिन उन्होंने काफी बाद में ख्याति प्राप्त करने पर इस नाम को आगे किया। समस्त राजा जिसके लिए उसी तरह सहायक हैं जिस तरह नारायण के लिए गरुड़ और जो तीनों शक्तियों से सम्पन्न है। जो गौड़ परिवार में अवतरित हुआ, जो विराट कुल का तिलक है और जो बोधिसत्य का नवीनतम अवतार है। यह समृद्ध (शासक) अनेकमल्ल' पृथ्वी के राजाओं का शिरोधार्य तिलक है, जिसकी सेनाओं ने घेर कर केदारभूमि को जीतकर उसे अपने अधीन कर युद्धमुक्त कर दिया, जिस पृथ्वीपति ने श्री पादपद्म का महल निर्मित कर उसे अनेकानेक सुखसाधनों से सज्जित किया, जो उपहार और भोजन दान कर प्रसन्न होता है उसने सौर गणना के अनुसार शक राजा के 1113वें वर्ष में ***** दिन गणपति 12. शुक्रवार नवमी को मल्ल श्री राजा गल्ल, श्री ईश्वरीदेव पंडित श्री रंजनदेव और श्री चंद्रोदय देव ने सेनापति और सेनानायक के साथ लिखा।

बाड़ाहाट का त्रिशूल

इस काल का एक और दस्तावेज हमें टिहरी में बाड़ाहाट के त्रिशूल पर खुदे लेख से मिलता है। इस त्रिशूल की आधार पीठिका तांबे की है जो कि आकार और बनावट में घड़े जैसी है। इस त्रिशूल का तना पीतल का है जिसके नीचे की ओर का आधा हिस्सा दशफलकी और ऊपर का भाग सर्पिल है। इसके तीनों शूल छह-छह फुट लम्बे हैं जिनकी पार्श्वशाखाओं पर शृंखला लटकी है जिस पर पहले घंटियां लटकाई जाती थीं। स्थानीय किवदंतियों के अनुसार यह त्रिशूल किसी तिब्बती राजा ने चढ़ाया था जिसका प्राचीन काल में इस क्षेत्र पर अधिकार था। इस लेख की एक प्रति मिस्टर ट्रेल ने एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता को भेजी और डॉ. डब्ल्यू. एच. मिल इसे जितना पढ़ पाए उससे यह बात सामने आई कि यह लेख 'स्वस्ति, श्री' से शुरू होता है, जो कि स्पष्टतः राजा के लिए है और पहली पंक्ति में लिखा है, 'यस्य यत्र हर्म यछृंगोछूतम् दीप्तम', जिसका दैदीप्यमान महल वहां है जहां ऊंची चोटियां हैं। दूसरी पंक्ति काफी शब्दाडम्बरपूर्ण है जिसका अनुवाद इस प्रकार किया जा सकता है - "उसका पुत्र, जिसके अधीन ऐसी असंख्य सेना है जो पृथ्वी के रसों को इस तरह निगल जाती है जैसे ग्रीष्म का सूर्य सिंहासन पर बैठा तो उसका धनुष विश्राम में था, उसकी सभा में संत सलाहकार थे जो सभी स्वार्थों से निर्लिप्त थे। उसका मूल नाम उदार चरित है क्योंकि वह धार्मिक कार्यों में तत्पर रहता है, शक्ति के देवता के रूप में अपने शत्रु की सेना और उसके रथ आदि का दमन कर देता है।" यह दूसरी पंक्ति का भाव है। तीसरी और अन्तिम पंक्ति गद्य में है जिसके शुरू में 'पूतःपूतस्य' यानी 'प्रिय पिता का प्रिय पुत्र' है। इस पंक्ति का समापन इन शब्दों के साथ होता है 'तिलक यावदन्के पिधत्त तारत्कीर्ति सुकीर्त योराक्षरमठ तस्यास्तु राजनह स्थिरम्' अर्थात जब तक यह पवित्र चिह्न शरीर में है तब तक इन यशश्वी (पिता-पुत्र) की महिमा विद्यमान रहेगी, भविष्य में भी इनकी कीर्ति अक्षय रहेगी। अर्थ बहुत स्पष्ट नहीं है और 'सुकीर्त' के लिए 'यशश्वी' असामान्य है हालांकि विन्यास बहुत अशुद्ध भी नहीं है।

गोपेश्वर त्रिशूल 

दूसरा त्रिशूल गोपेश्वर मंदिर के सामने हैं जिसका तना लोहे का है' इस पर तांबे की पट्टी में उभरे हुए प्राचीन अक्षर उसी तरह हैं जैसे बाड़ाहाट में। अक्षरों का आकार-प्रकार बाड़ाहाट वाला ही है। इनके साथ ही तीन या चार छोटे खुदे लेख हैं जो लोहे की पत्ती पर आधुनिक नागरी लिपि में है। इनमें से तीन पढ़ने में नहीं आते और किसी अन्य भाषा में लिखे गए लगते हैं। चौथे का अनुवाद डॉ. मिल देते हैं जो संस्कृत में है, हालांकि इसमें कई अशुद्धियां है। शुरू का वाक्य उसी छन्द में है जिसमें बाड़ाहाट वाला। यह लेख इस प्रकार है:- “यशश्वी राजा अनेक मल्ल ने अपने पराक्रम से विश्व के समस्त संप्रभु राजाओं को जीत कर चारों ओर अपनी सत्ता का विस्तार करते हुए सबको महादेव की इस पवित्र भूमि में एक चिह्न स्तम्भ के नीचे अवनत किया है।" "और इस प्रकार उसी तरह का विजय स्तम्भ फिर से स्थापित कर उसने ख्याति अर्जित की। यह एक पवित्र कार्य है कि एक शक्तिशाली शत्रु को जीतने के बाद उसे (या उसके निशान को खड़ा किया जाय।” एशियाटिक सोसाइटी  के जर्नल में पट्टी की जो आकृतियां दी गई है वह इन त्रिशूलों की रूप-आकृतियां है। बाड़ाहाट लेख के ज्यादा पुराने वाले एक हिस्से 'अ' का अनुवाद ऊपर दिया जा चुका है। और अनेक मल्ल का जो 'ब' लेख गोपेश्वर त्रिशूल पर है वह केवल गोपेश्वर त्रिशूल वाले अनेक मल्ल से सम्बन्धित है जिसकी तिथि के बारे में हमें मालूम है।  बाड़ाहाट के त्रिशूल पर पुराने अक्षर निश्चित रूप से बारहवीं शताब्दी से ज्यादा पुराने हैं और इसका सम्बन्ध मल्ल वंश से पहले के वंश से है। 

नेपाल त्रिशूल

शिव या पशुपति के सम्मान में त्रिशूल स्थापित करना पहाड़ी राजाओं में एक रिवाज था नेपाल के इतिहास में जिक्र आता है कि शंकरदेव ने एक मन लोहे का त्रिशूल बनवाया और पशुपति मंदिर के उत्तरी द्वार पर स्थापित किया जिसके अवशेष आज भी विद्यमान हैं। इसी इतिहास- स्रोत से हम गढ़वाल पर आक्रमण करने वाले मल्ल राजा के देश का पता लगा पाए हैं। नेपाल के मल्ल राजा अंशु वर्मा के वंशज थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार अंशु वर्मा, पटना के निकट वैशाली के सूर्यवंशी लिच्छवियों में से था। इनमें से एक के पुत्र का नाम अभय रखा गया और साथ में 'मल्ल' (पहलवान) पदवी लगाई गई। ऐसा इसलिए किया गया कि जब अभय के पैदा होने की खबर उसके पिता को मिली तो उस समय पिता कुश्ती या मल्ल युद्ध देख रहे थे। अभय मल्ल के दो पुत्र हुए जिनमें से आनन्दमल्ल ने भक्तपुर पर शासन किया और जयदेवमल्ल पाटन व कान्तिपुर का राजा बना। कर्नाटक वंश के किसी राजा ने इन दोनों को निकाल बाहर किया और ये तिरहूत भाग गए। इनके कुछ पारिवारिक लोग नेपाल में ही रह गए होंगे, तभी कुछ पीढ़ियों बाद हम देखते हैं कि पाटन के कथ्य मल्ल और राजा मल्लदेव ने चापागांव ग्राम बसाया और अन्य मल्ल कांतिपुर में रहता था।  जब कर्नाटक वंश का अंत होने लगा और नेपाल अनेक ठकुरी राजाओं में बंट गया, पाटन में राज्य के ढहने से पूर्व मंत्रियों, जनता और सेना ने बगावत की स्थानीय इतिहासकारों के अनुसार यह विद्रोह वर्ष 1191 ईसवी में हुआ था। उस समय के कर्नाटक राजा हरिदेव ने शुरू में इस विद्रोह को कुचलने का प्रयास किया लेकिन वह और काठमांडू की उसकी सेना हार गई तथा उनका पीछा थम्बहील तक किया गया, इसके बाद वह पाटन पर फिर कभी काबिज नहीं हो पाया। इस तरह हम यह मान सकते हैं कि जयदेव मल्ल के परिवार का पाटन से पूरी तरह सफाया कभी नहीं हुआ और बहिरागत कर्नाटकों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल, मल्ल परिवार के ही किसी सदस्य के नेतृत्व में बजाया गया तथा यही मल्ल फिर हमें गढ़वाल-लेखों में दिखाई देते हैं। दाननामा से पता चलता है कि अनेक मल्ल, बौद्ध धर्म अनुयायी था और नेपाली दस्तावेजों के अनुसार भी मल्ल लोग बौद्ध थे।  अनेक मल्ल गढ़वाल और पवित्र केदार भूमि का विजेता था। उसने गोपेश्वर में त्रिशूल स्थापित किया और अपनी वीरता का लेख उत्कीर्ण करवाया। ऐसा लगता है कि गोपेश्वर और बाड़ाहाट में एक ही वंश का राज था और उनका प्रमुख नगर बाड़ाहाट प्रसिद्ध था तथा हमारा मानना है कि यह उस ब्रह्मपुर राज्य की राजधानी था जहां की सातवीं शताब्दी में हवेनसांग ने यात्रा की थी। इस क्षेत्र में मल्लों का शासन थोड़े समय ही रहा होगा क्योंकि हमें उनके निशान के रूप में एक चबूतरे के अलावा और कोई चिह्न या किंवदंति नहीं मिलती। उनका एकमात्र निशान, एक चबूतरा, जोशीमठ में है जो कभी उनकी सीमाशुल्क चौकी के रूप में रहा होगा और आज उसे 'रैका का चबूतरा" कहकर पुकारते हैं। यहां यह भी दृष्टव्य है कि हमारे पास ये पुराने लेख रूप आकार या विषयवस्तु के तौर पर पूर्ण नहीं हैं। इनमें नागरिक व सैनिक विभाग प्रमुखों व वरिष्ठ शास्त्री के नाम के बजाय केवल उस समय मौके पर मौजूद लोगों के लिए उनका पद 'सेनापति' या 'सेनानी' लिखा गया है। 

('रैका या रेंका, मल्ल परिवार की एक पुरानी पदवी है और इस परिवार की एक शाखा जो आज भी विद्यमान है)।

( यह जानकारियां अलग अलग जगह से लिखीं हुई है। अटकिंसन के गजेटियर के एक भाग से और अन्य जगह से)। 

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

चिपको आंदोलन

बसंत पंचमी और बसंत ऋतु का स्वागत:

ये मन बंजारा रे